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लेखनी प्रतियोगिता -09-Nov-2023

दैनिक प्रतियोगिता

लेख :- आत्मा और परमात्मा

संसार तैरने से मिलता है, परमात्मा बहने से मिलता है।'
महापुरुषों की वाणी का सत्संग कीमती है। उनका आशय है संसार बहने से नहीं मिलता और परमात्मा तैरने से नहीं मिलता।परमात्मा के बहाव में अपने आपको पूरी तरह से छोडना होता है। 
वे यह भी कहते हैं कि दोनों जगह दोनों चीजों का इस्तेमाल भी करना पडता है। परमात्मा में बहना अपने आप नहीं हो जाता। परमात्मा के विरुद्ध बहने की जो आदत, जो मान्यता बनी होती है उसे छोडनी पडती है जो किसी साधना से कम नहीं बल्कि सारी साधनाएं इसीके लिए हैं। परमात्मा के अनुकूल हो जाना पर्याप्त है। 
संसार को पाना है तो कभी तैरने के साथ बहना भी पडता है। कठिन परिस्थिति के खिलाफ निरंतर संघर्ष करके थकने से बेहतर है कुछ समय शांत रहना और समय की धारा में स्वयं को बहने देना ताकि फिर से ऊर्जा ग्रहण करके कर्म में प्रवृत्त हुआ जा सके। 
गीता कर्म में अधिकार की बात कहती है, फल की नहीं। 
इसमें तीनों गुणों का समावेश है। कर्म में प्रवृत्ति रजोगुण है। अंधाधुंध प्रवृत्ति संभव नहीं। संतुलन भी चाहिए। यह सत्वगुण है। कभी कभी स्वयं को निष्क्रिय छोड देना चाहिए यह तमोगुण है। जैसे खेती के बाद कुछ समय खेत की भूमि को निष्क्रिय छोडा जाता है पुनः उपजाऊ होने के लिए। सुषुप्ति द्वारा पुनः अगले दिन के लिए ऊर्जा ग्रहण की जाती है। 
इस युग में समग्र चेतना कर्म में लगी है अतः कर्मयोग का संदेश इसके अनुकूल है। परमात्मा को पाने के लिए स्वयं को उस धारा में बहने देने की बात उन्हीं की समझ में आती है जो कर्म से ध्यान हटाकर परमात्म विषयक सोच रखते हैं, उसीको जीवन लक्ष्य बनाते हैं।और यह सच है कि परमात्मा तैरने से नहीं, बहने से मिलता है। स्वयं को उसकी धारा में छोडना ही पडता है।
 गीता कहती है- प्रकृति के गुण अपना अपना कार्य कर ही रहे हैं फिर तुम कर्ता क्यों बनते हो? क्यों नहीं होने देते सब? यहाँ सब हो रहा है। कर्ता कोई नहीं। अर्थात कर्ता प्रकृति है, हम नहीं। हमारा स्वरूप अकर्ता है। इसे जान लेना अपने को उस धार में छोड देना है। यह देह, अंत:करण(मन बुद्धि चित्त अहंकार) को छोडना है। वे बहते रहते हैं। जब तक तादात्म्य है स्वयं को भी उनके साथ बहने का अनुभव होता है, तादात्म्य न होने पर फिर अकर्तापन आ जाता है। 
अकर्तापन वास्तविक है, कर्ता भाव सही नहीं, बाधक भी है। इसका सीधा मतलब है बेहोशी। यह जानबूझकर होश गंवाने जैसा है। यह जिस माध्यम से होता है वह रोज का मामला है। 
यह जानना निहायत जरुरी है कि हम विचार करते हैं या विचार आते हैं? इसका पता लगाना चाहिए। पता लगाने वाले को पता चलता है कि विचार आते हैं, उठते हैं भीतर से। हम वे ही विचार करते हैं जो आते हैं भीतर से। 
यदि स्वयं उन आगंतुक विचारों का कर्ता है ऐसा लगता है तो बेहोशी नहीं टूटेगी। फिर वह बाध्य की तरह आगंतुक विचारों में खोया रहेगा अंतहीन प्रतिक्रिया करते हुए। 
यदि थोड़ी भी जागरूकता है तो हर विचार के उठने पर वह यही कहेगा-मै यह विचार नहीं कर रहा हूँ। 
या सीधा कह देगा-यह विचार नहीं है। यह विचार नहीं आ रहा है।
 हमारी अनुमति से ही आयेगा। अनुमति नहीं तो कैसे आयेगा? यह तो तब की बात है जब जाना जाता है कि विचार तो आते हैं। 
गडबडी तब होती है जब स्वयं को ही विचार कर्ता मान लिया जाता है। 
तब कौन कहेगा-यह विचार नहीं है, या यह विचार नहीं आ रहा है? 
"यह विचार नहीं आ रहा है"-ऐसा कहना यह तो उसकी श्रृंखला तोडने के लिए है, प्रतिक्रिया का अंत ही कर देने के लिए है। 
आपसी समस्या इन आगंतुक विचारों में खोकर इनका कर्ता बनने के कारण ही तो आती है।कहाँ तो आपस में प्रेम और समझ के साथ जीना चाहिए, कहां इतना उपद्रव, इतना क्लेश परस्पर! 
इसका एक ही कारण है भीतर से नकारात्मक विचार आते हैं उनके साथ बहते रहना। यह वह बहना नहीं है जो परमात्मा के साथ होता है। परमात्मा के साथ बहने में कोई कर्ता भोक्ता भाव नहीं होता। हो ही नहीं सकता। कर्ता भोक्ता भाव अर्थात अहंकार के साथ धार्मिक होने का नतीजा मानवीय गुणों के विकास में चट्टान बनकर खड़ा हो जाता है। 
इन सब स्थूल बातों के रहते गहन आध्यात्मिक तथ्यों को जानना तो असंभव ही हो जाता है।
वह क्या है?थोड़ा यह भी जानलें।
"The seen regarded as self is real. "
द्रष्टा को स्वयं की तरह देखने के लिए कहा जाता है जो द्रष्टा को आत्मा से (सेल्फ से) जोडता है। यहां दृश्य को स्वयं की तरह देखने के लिए कहा जा रहा है।यह प्रकृति तथा आत्मा दोनों दृष्टि से है। प्रकृति की दृष्टि से न समझने तक यह बाध्यता को दर्शाता है। 
ये प्रकृति के गुण ही हैं जो गुणों में बरतते हैं। उसमें स्वयं स्रोत की तरह नहीं अपितु देह, अंत:करण की तरह है ऐसा  लगता है। 
और प्रकृति के सभी संचित गुण, देह- अंत:करण से होकर गुजरते रहते हैं बाध्यता पूर्वक। उन्हें रोका नहीं जा सकता। वे सुखद या असुखद रुप में गुजरते हैं। 
उन्हें हम बाहरी व्यक्ति-घटना-परिस्थिति से जोडकर देखते हैं जबकि हम ही हैं बाहरी व्यक्ति-घटना-परिस्थिति। 
बाहरी व्यक्ति जो हमारे साथ अच्छा बुरा व्यवहार करता है वह अच्छा बुरा व्यवहार स्वयं के द्वारा ही स्वयं के साथ होता है। बाहरी व्यक्ति जो सुखदुख देता है वह सुखदुख स्वयं के द्वारा स्वयं को दिया जाता है। यही स्व ज्ञान है(सेल्फ नोलेज)।हमें वही होता है वैसा ही होता है जैसा हमारे भीतर संचित है। अतः बाहरी व्यक्ति को केवल निमित्त की तरह देखा जा सकता है स्वयं को जानने के लिए। 
किसी से भय लगता है तो वह स्वयं से ही लगता है।(यह जान ले तो अपने ही भय पर अपने को हंसी आयेगी)। किसी से अवसाद होता है तो वह स्वयं से होता है। किसी से गुस्सा आता है तो वह स्वयं से ही आता है अपने ही संचित गुणों, विचारों, संस्कारों के कारण। 
इसीलिए कहा जाता है स्वयं को जानना मुक्ति का आरंभ है अन्यथा बहिर्मुखता बने रहने पर सुखदुख, मानापमान सभी के कारण बाहर लगते हैं। वे बाहरी समस्याओं का कारण भी बन जाते हैं। 
यह पता चल जाये कि तमाम सुखद, असुखद अनुभव खुद के हैं, खुद के ही कारण हैं, खुद की ही बनावट से हैं तो बाहरी से ध्यान हटकर खुद पर आ जायेगा और बाहरी के साथ स्वस्थ, समझ पूर्ण संबंध का निर्माण हो सकेगा।
सुखद को पूरी तरह से अपने आपके रुप में,पूरे शरीर के रुप में अनुभव होने देना(क्योंकि चेतना पूरे शरीर में व्याप्त है), दुखद को या हर दुखद अनुभव होने वाले व्यक्ति, घटना आदि को अपने पूरे शरीर के रूप में अनुभव होने देना, बिना जरा भी बचे या बचाये।स्वयं द्रष्टा-दृश्य दोनों है। 
पूर्णतया स्वयं ही तथाकथित बाहरी सुखद या दुखद व्यक्ति के रूप में हो जाने पर
 यह जाना जा चुका होता है कि अपने भीतर होने वाले परिवर्तनों में बाहरी की कोई भूमिका नहीं है। हमारा अपने स्वभाव, संस्कार, संवेदनाओं का ही असली कारण है।
और तब अपने साथ कुछ किया जा सकता है। यह हमें मुक्त भी करता है और सबके लिए सहयोग पूर्ण भी बनाता है। 
अतः जीवन सूत्र है-
हर एक परिस्थिति में कार्य-कारण रूप में अर्थात समग्र रूप से खुद पर ही ध्यान दें,खुद को ही जानें, खुद को ही समझें
-स्वयं को होने देते हुए क्यों कि तभी स्वयं को समझा जा सकता है। 
इसे चाहे कोई प्रकृति के साथ बहना कहे मगर कोई इसे परमात्मा के साथ बहना भी कह सकते हैं जो सभीके मूल में है। जो सबका मूल कारण है।जो यह सब है अपने अनिर्वचनीय खेल के रूप में, क्रीडा के रूप में।

अपर्णा गौरी शर्मा 🕉️

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6 Comments

Reena yadav

09-Nov-2023 08:12 PM

👍👍

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Gunjan Kamal

09-Nov-2023 08:08 PM

वाह! शानदार लेखन 👏👌🙏🏻

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बहुत धन्यवाद आभार आपका 🥰😊😇🙏🏾🌹

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Varsha_Upadhyay

09-Nov-2023 07:22 PM

Nice 👌

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Thank you

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